आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर हमारे आगे कई ऐसी चुनैतियां हैं जिनका हमें सामना करना है। हमें समझना होगा कि चन्द मुठ्ठी भर महिलाओं के उत्थान करने से पूरे नारी समाज का कल्याण नहीं हो सकता। अगर महिलाओं को सशक्त करना है तो पहले समाज को जागरुक करना होगा। नारी एक ऐसी ईश्वरीय कृति है जिसके बिना आप जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। स्त्री मातृत्व की देवी होने के साथ ही पुरुष की पूरक भी है। समाज के लिए इतना जरुरी होने के बाद भी लोग अक्सर स्त्री को वह सम्मान नहीं देते जो उन्हें देनी चाहिए। कभी नारी को गुलाम बनाकर रखा जाता है तो कभी घर की चारदीवारी में इज्जत के नाम पर बंद करके रखा जाता है। इसका उदाहरण आज भी ग्राम पंचायत इलाकों में अच्छी तरह देखी जा सकती है, जहाँ की महिला जनप्रतिनिधियों को और भी शसक्त करने के लिए एक और जहाँ राज्य और केंद्र की सरकार पंचायतराज में कई अधिकार और आर्थिक रूप से मजबूती देने का प्रयास कर रही है वहीं दूसरी ओर आज भी ज्यादातर ग्राम पंचायतो में महिला मुखिया, सरपंच, वार्ड सदस्य होने के बावजूद वहां पर दबदबा उनके पतियों का या रिश्तेदारों का ही चलता है। कई ग्राम पंचायतो के हालात तो इतने बदतर है की सरपंच, या मुखिया चुने जाने के बावजूद आज भी महिला जनप्रतिनिधि घरो में रहने तक ही सिमित है। वो आज भी पुरुष प्रधान समाज के सामने अपनी बात तक रखने में हिचकिचाती है। ठाकुरगंज प्रखंड की कई ऐसी ग्राम पंचायत में यह देखने को मिला जब लोगों से पूछा गया कि पंचायत के मुखिया कौन हैं तो अधिकांश लोगों ने उनके पति का ही नाम लिया। जब बताया गया कि ये पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित है तो कहा कि पता नही लेकिन पत्नी के बदले पति ही तो पंचायत का सारा काम करते हैं। इसलिए हमें लग रहा है कि उनके पति ही हैं। पंचातवासी को यह मालूम तक नही कि कौन बना है मुखिया? पति या पत्नी। जिला परिषद, मुखिया, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य हो या वार्ड सदस्य हर पद के लिए खुल्लमखुल्ला उनके पति का प्रभाव ही चल रहा है।
क्या इसी तरह बिहार सरकार ग्रामीण इलाको में महिला शसक्तीकरण करेगी? क्या ऐसी स्थिति के लिए ही पंचायतराज को मजबूती देने का निर्णय किया गया था? क्या बाइसवीं सदी में प्रवेश करने के बाद भी हमारे राज्य की महिला जनप्रतिनिधियो को घूंघट की आड़ में ही जीने को विवश होना पडेगा? यह एक बड़ा सवाल है जिसे ना सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियो को गंभीरता से लेना पड़ेगा बल्कि नेताओं को भी सरपंच पतियों के बढ़ते हस्तक्षेप पर प्रभावी अंकुश लगाकर ग्रामीण जनता को राहत देने की पहल करनी पड़ेगी।
पंचायत का सभी काम, बेख़ौफ़ होकर पति देते हैं अंजाम:
महिलाओं के सशक्तिकरण का सपना शायद ही कभी पूरा हो सकेगा। सरकार महिलाओं को समाज के मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कितना भी कुछ कर ले लेकिन पंचायत में उनके पति का ही छाप चलता है।पंचायत में महिला जनप्रतिनिधि ऐसी है जो पद पर आने के बाद घर के काम-काज व चौका बर्तन में ही लगी हुई है। पत्नी के बदले उनके पति या रिश्तेदार पंचायत का सभी काम को अंजाम देकर महिला अधिकारों का शोषण कर रहे हैं और महिला सशक्तिकरण के रक्षक अधिकारी मूक दर्शक बने रहते है।
महिला जनप्रतिनिधि के अधिकारों पर हो रहा घातक चोट:
ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी प्रशासन के आला अधिकारियो से लेकर सरकार में बैठे विधायको या मंत्रियो को नहीं है। सभी को यह हकीकत पता है, बावजूद कोई भी महिला जनप्रतिनिधियो के अधिकारो पर हो रहे इस घातक चोट के खिलाफ कार्यवाही नहीं करना चाहते है। हर कोई मुखिया, सरपंच, वार्ड सदस्य, पंच पतियो के कारनामो को आँख बंद करके देख रहे है।
आजादी के सत्तर दशक बाद भी महिला शक्ति अधिकारों से बंचित:
महिलाओं के सशक्तिकरण में प्रसाशन के साथ ही खून का रिश्ता रखने वाले स्वजन ही बाधक बने हुए है। अगर नारी बाहर निकल गई तो कोई चुरा लेगा। स्त्रियों की हालत इतनी खराब है कि आज महिलाएं घर से बाहर जाती हैं तो अपने दिल के अंदर से इस बात को अलग नहीं कर पातीं कि उनकी इज्जत खतरे में है। कुछ गिनी-चुनी महिलाओं के सशक्त होने भर से हम कहते हैं कि आज महिला सशक्तिकरण हो रहा है।आजादी के सत्तर दशक बीत जाने के वाद भी महिला शक्ति अपने अधिकारों से बंचित है जो दुर्भाग्य के साथ चिंता एवं चिंतन का बिषय है।
विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया, किशनगंज।
आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर हमारे आगे कई ऐसी चुनैतियां हैं जिनका हमें सामना करना है। हमें समझना होगा कि चन्द मुठ्ठी भर महिलाओं के उत्थान करने से पूरे नारी समाज का कल्याण नहीं हो सकता। अगर महिलाओं को सशक्त करना है तो पहले समाज को जागरुक करना होगा। नारी एक ऐसी ईश्वरीय कृति है जिसके बिना आप जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। स्त्री मातृत्व की देवी होने के साथ ही पुरुष की पूरक भी है। समाज के लिए इतना जरुरी होने के बाद भी लोग अक्सर स्त्री को वह सम्मान नहीं देते जो उन्हें देनी चाहिए। कभी नारी को गुलाम बनाकर रखा जाता है तो कभी घर की चारदीवारी में इज्जत के नाम पर बंद करके रखा जाता है। इसका उदाहरण आज भी ग्राम पंचायत इलाकों में अच्छी तरह देखी जा सकती है, जहाँ की महिला जनप्रतिनिधियों को और भी शसक्त करने के लिए एक और जहाँ राज्य और केंद्र की सरकार पंचायतराज में कई अधिकार और आर्थिक रूप से मजबूती देने का प्रयास कर रही है वहीं दूसरी ओर आज भी ज्यादातर ग्राम पंचायतो में महिला मुखिया, सरपंच, वार्ड सदस्य होने के बावजूद वहां पर दबदबा उनके पतियों का या रिश्तेदारों का ही चलता है। कई ग्राम पंचायतो के हालात तो इतने बदतर है की सरपंच, या मुखिया चुने जाने के बावजूद आज भी महिला जनप्रतिनिधि घरो में रहने तक ही सिमित है। वो आज भी पुरुष प्रधान समाज के सामने अपनी बात तक रखने में हिचकिचाती है। ठाकुरगंज प्रखंड की कई ऐसी ग्राम पंचायत में यह देखने को मिला जब लोगों से पूछा गया कि पंचायत के मुखिया कौन हैं तो अधिकांश लोगों ने उनके पति का ही नाम लिया। जब बताया गया कि ये पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित है तो कहा कि पता नही लेकिन पत्नी के बदले पति ही तो पंचायत का सारा काम करते हैं। इसलिए हमें लग रहा है कि उनके पति ही हैं। पंचातवासी को यह मालूम तक नही कि कौन बना है मुखिया? पति या पत्नी। जिला परिषद, मुखिया, सरपंच, पंचायत समिति सदस्य हो या वार्ड सदस्य हर पद के लिए खुल्लमखुल्ला उनके पति का प्रभाव ही चल रहा है।
क्या इसी तरह बिहार सरकार ग्रामीण इलाको में महिला शसक्तीकरण करेगी? क्या ऐसी स्थिति के लिए ही पंचायतराज को मजबूती देने का निर्णय किया गया था? क्या बाइसवीं सदी में प्रवेश करने के बाद भी हमारे राज्य की महिला जनप्रतिनिधियो को घूंघट की आड़ में ही जीने को विवश होना पडेगा? यह एक बड़ा सवाल है जिसे ना सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियो को गंभीरता से लेना पड़ेगा बल्कि नेताओं को भी सरपंच पतियों के बढ़ते हस्तक्षेप पर प्रभावी अंकुश लगाकर ग्रामीण जनता को राहत देने की पहल करनी पड़ेगी।
पंचायत का सभी काम, बेख़ौफ़ होकर पति देते हैं अंजाम:
महिलाओं के सशक्तिकरण का सपना शायद ही कभी पूरा हो सकेगा। सरकार महिलाओं को समाज के मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कितना भी कुछ कर ले लेकिन पंचायत में उनके पति का ही छाप चलता है।पंचायत में महिला जनप्रतिनिधि ऐसी है जो पद पर आने के बाद घर के काम-काज व चौका बर्तन में ही लगी हुई है। पत्नी के बदले उनके पति या रिश्तेदार पंचायत का सभी काम को अंजाम देकर महिला अधिकारों का शोषण कर रहे हैं और महिला सशक्तिकरण के रक्षक अधिकारी मूक दर्शक बने रहते है।
महिला जनप्रतिनिधि के अधिकारों पर हो रहा घातक चोट:
ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी प्रशासन के आला अधिकारियो से लेकर सरकार में बैठे विधायको या मंत्रियो को नहीं है। सभी को यह हकीकत पता है, बावजूद कोई भी महिला जनप्रतिनिधियो के अधिकारो पर हो रहे इस घातक चोट के खिलाफ कार्यवाही नहीं करना चाहते है। हर कोई मुखिया, सरपंच, वार्ड सदस्य, पंच पतियो के कारनामो को आँख बंद करके देख रहे है।
आजादी के सत्तर दशक बाद भी महिला शक्ति अधिकारों से बंचित:
महिलाओं के सशक्तिकरण में प्रसाशन के साथ ही खून का रिश्ता रखने वाले स्वजन ही बाधक बने हुए है। अगर नारी बाहर निकल गई तो कोई चुरा लेगा। स्त्रियों की हालत इतनी खराब है कि आज महिलाएं घर से बाहर जाती हैं तो अपने दिल के अंदर से इस बात को अलग नहीं कर पातीं कि उनकी इज्जत खतरे में है। कुछ गिनी-चुनी महिलाओं के सशक्त होने भर से हम कहते हैं कि आज महिला सशक्तिकरण हो रहा है।आजादी के सत्तर दशक बीत जाने के वाद भी महिला शक्ति अपने अधिकारों से बंचित है जो दुर्भाग्य के साथ चिंता एवं चिंतन का बिषय है।
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