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माता कात्यायनी (आदि शक्ति का छठा रूप) – शक्ति-साधना और आज्ञाचक्र की वैज्ञानिकता।

कमलेश कमल से साभार, सारस न्यूज़ टीम

कमलेश कमल (एक लेखक, कवि, राष्ट्रवादी विचारक और एक पुलिस अधिकारी) से जानिए और समझिये नवरात्र का वास्तविक अर्थ

पराम्बा शक्ति पार्वती के नौ रूपों में छठा रूप कात्यायनी का है। अमरकोष के अनुसार यह पार्वती का दूसरा नाम है। ऐसे, यजुर्वेद में प्रथम बार ‘कात्यायनी’ नाम का उल्लेख मिलता है। ऐसी मान्यता है कि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए आदि शक्ति देवी-रूप में महर्षि कात्यायन के आश्रम पर प्रकट हुईं। महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या माना, इसलिए उनका अभिधान ‘कात्यायनी’ हुआ। पाठकों को यह जानना चाहिए कि महिषासुर नामक असुर का वध करने वाली माता भी यही हैं, हालाँकि इसका भी प्रतीकात्मक महत्त्व है।

पृथ्वी की ही भाँति कात्यायनी को स्थितिज्ञापक संस्कार से युक्त, धरा-सी धीर, प्रेममयी और क्षेममयी माना गया है। वह सत्त्व, दया, ममत्व और शक्ति की पराकाष्ठा है, संभवतः इसीलिए पराम्बा है। पृथिवी सूक्त के प्रथम मंत्र में ही कहा गया- ‘सत्यं बृहदऋतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति। सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरूं लोकं पृथिवीः नः कृणोतु।।’(अथर्व. 12.11) अर्थात् सत्य, वृहद ऋतम्,उग्रता, दीक्षा, तप, ब्रह्म,यज्ञ, यह धर्म के सात अंग पृथिवी को धारण करते हैं औऱ यह पृथिवी हमारे भूत-भविष्य औऱ वर्तमान तीनो कालों की रक्षिका व पालिका है। कात्यायनी माता में यही गुण हैं।

प्रतीकात्मक चित्र में माँ के हाथ में कमल और तलवार शोभित है। प्रतीकों पर ग़ौर करें, तो तलवार शक्ति का प्रतीक है और कमल संस्कृति का। तात्पर्य यह कि इन दोनों के माध्यम से यह दिखाने कि कोशिश है कि आदिशक्ति संस्कृति से मिल रही हैं; साधक की सांस्कृतिक चेष्टा सफलीभूत हो रही है।

इसमें साधक का ध्यान आज्ञा-चक्र पर रहता है, जो दोनों भृकुटियों के मध्य, मस्तक के केंद्र में अवस्थित है जहाँ तिलक लगाया जाता है। यह आज्ञा चक्र ‘आत्म-तत्त्व’ का भी परिचायक है। विदित हो कि योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अतीव महत्वपूर्ण स्थान माना गया है।

योग साधना और विज्ञान में एक अद्भुत साम्य देखिए कि हज़ारों वर्षों से साधकों ने इसे दो पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में अनुभूत किया एवं अब आधुनिक विज्ञान कहता है कि यह स्थान दो अतिमहत्त्वपूर्ण ग्रन्थियों (पीनियल और पिट्यूटरी- pineal and pitutary) के मिलन का बिंदु है। विज्ञान कहता है कि pitutary gland ही master gland है जो सभी ग्रंथियों को आदेश देता है। हमारे युवजनों को यह जानना चाहिए कि साधकों ने सदा से यही कहा है और इसका नाम ही आज्ञा-चक्र रखा है। आर्ष ग्रन्थों को पलटकर तो देखें– यह लिखा है कि आज्ञा-चक्र मन की हलचलों एवं बुद्धि को पूर्णतः प्रभावित करता है।

इसी तरह pineal gland एक harmone का secretion करता है जिसका नाम melatonin है। इस द्रव्य को ‘cerebrospinal fluid’ भी कहा जाता है। इन दो ग्रन्थियों को सनातनी साधकों ने इड़ा और पिंगला कहा। प्रतीकों में इसे गंगा और यमुना कहा गया और इनके बीच प्रवाहित एक अदृश्य नाड़ी को सरस्वती (सुषम्ना) कहा गया।

ध्यान दें कि जो आधुनिक विज्ञान अँगरेज़ी में आज कह रहा है, वह सनातन संस्कृति के ग्रंथों में संस्कृत में लिखा है। यह ऐसा ही है जैसे हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रतीकों में कहा कि सूरज सात अश्व वाले रथ में बैठकर आता है और आधुनिक विज्ञान ने कहा कि सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं(VIBGYOR)। ध्यातव्य यह भी है कि आधुनिक शोध से अब पता चला कि अपनी आकाशगंगा में jupiter सबसे बड़ा ग्रह है जबकि हज़ारों वर्ष पूर्व के आर्ष-ग्रन्थों ने इसे बृहस्पति और गुरू कहा गया। ‘गुरू’ का अर्थ भारी या बड़ा है।

उपर्युक्त विवेचन के आलोक में यह उद्धृत करना समीचीन होगा कि आज्ञा-चक्र सत् चित् और आंनद का केंद्र है। नैतिक शक्ति, तर्क शक्ति एवं विवेक शक्ति के जागरण का इससे सीधा संबंध है। हमने देखा कि विज्ञान भी कहता है कि pitutary gland ही सबको नियंत्रित करता है। इसके जागरण से मनुष्य की मेधा अतीव तीव्र हो जाती है एवं वह सब कुछ भली प्रकार देख और समझ सकता है। यह ज्ञान का आना साधुओं की भाषा में ‘ज्ञान-नेत्र’ का खुलना है। अब इस विद्या के सबसे बड़े योगी तो शिव हैं, तो उनका ज्ञान चक्र सृष्टि में सबसे अधिक खुला हुआ है। प्रतीक के रूप में आज्ञा चक्र के पास उन्हें एक और नेत्र दिखाया गया, जिसे शिव का तीसरा नेत्र कहा गया। अस्तु, शिव को त्रिनेत्र कहने का आशय है कि बहिर्चक्षुओं के अतिरिक्त उनके पास एक आभ्यन्तरिक चक्षु या जाग्रत प्रज्ञा-चक्षु भी है।

निष्कर्षत:, वाक् पर ऐसा अधिकार कि श्रोता उसे आदेश की भाँति ले – यह सिद्धि आज्ञा-चक्र के जागरण से संभव है। मान्यता है कि परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे मनस्वी साधकों की साधना फलीभूत होती है और दत्तचित्त भक्तों को माँ कात्यायनी की कृपा से इस चक्र पर सिद्धि मिलती है।

जो साधक ‘शब्द-साधना’ या ‘मंत्र’ का आश्रय लेते हैं, उनके लिए माँ कात्यायनी की आराधना का मंत्र है :
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना । कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।

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