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बिंदु अग्रवाल की कविता #19 (गवाँर)।

विजय गुप्ता, सारस न्यूज़, गलगलिया।

मैंने सम्हाल कर रखा है
अपनी सभ्यता को आजतक,
मैं आज भी बड़ो के चरणों में
शीश नवाता हूँ।

मैंने जाना है मोल
अनमोल माटी का
मैं मेज-कुर्सी पर नहीं
ज़मीन पर बैठ कर,
खाना खाता हूं।

मेरा हृदय उन्मुक्त है
उस गगन की तरह,
दिखावे की जिंदगी नही जीता
मैं सभी को देख मुस्कुराता हूँ।

नही आता मुझे
सभ्यता के नाम पे,
अधनंगे वस्त्र पहनना,
बियर-बार में जाना
मैं तो अपने घर पे ही
नित महफिल सजाता हूँ।

धोती-कुर्ता गले में गमछा,
पहन बहुत इतराता हूँ।
मैं अपने बच्चों को हमेशा,
बड़ो को प्रणाम करना
सिखलाता हूँ।

भारत गाँवों का देश,
गाँव में बसता है “भारत”
मेरे अंतर्मन में मेरे
देश की बसती है मूरत
ना जात-पात,ना ऊँच-नीच
मैं सबको गले लगता हूँ।

मैंने सम्भाला है अपनी
सभ्यता को”गँवारियत”
के रूप में,तभी तो मैं
“गँवार”कहलाता हूँ।

बिंदु अग्रवाल
(किशनगंज)

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