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होली में पारंपरिक गीतों को भूल रहे लोग, न फाग का राग न ढोलक की थाप।

विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।

कल बुधवार को होली का पर्व है और जैसे-जैसे होली के दिन करीब आते गए, वैसे-वैसे लोगों की तैयारियां भी बढ़ती गई।होली के दिन गुलाल के साथ पारंपरिक होली गीतों में होली खेले रघुबीरा अवध में, होली खेले रघुबीरा, ‘गउरा संग लिये शिवशंकर खेलत फाग, ‘आज बिरज में होरी रे रसिया.. जैसे कर्णप्रिय होली गीत की मस्ती आपके मजे को दोगुना कर देती है। मगर आज की होली अब पहले जैसी नहीं रही। अब गांवों के चौपालों पर होली गीत नहीं सुनायी पड़ते। हर जगह होली गीत के नाम पर फूहड़ गीत-संगीत बजाए जाते हैं। और तो और, होली गीतों के नाम पर बस, टेंपो, जीप, सिटी रिक्सा एवं अन्य सवारी वाहनों में अश्लील गाने बजाये जाने से महिलाओं को होली के एक सप्ताह पहले से ही आना-जाना मुश्किल हो जाता है। आधुनिकता की दौड़ में अब होली गीतो को गाने वाले ही नहीं सुनने वालों की भी कमी आ गई है। अब न तो पहुआ गीतों की गूंज सुनाई देती है और न ही पहले जैसा मैत्री भाव ही रहा। भारतीय लोक साहित्य, संस्कृति, लोकगीत व इसे जुड़ी तमाम चीजों को समाज भूलता जा रहा है जिससे आने वाली पीढ़ी अंजान ही रहेगी।

 
होली में पारंपरिक गीतों को भूल रहे लोग

आज से कुछ वर्ष पहले  गांव से लेकर शहर तक पारंपरिक होली गीत बजाये जाते थे। जिससे लोगों में आपसी सद्भाव एवं भाईचारा बढ़ता था। मगर अब तो अधिकतर घरों में भी युवकों की टोली  भी नये जमाने की भोजपुरी गीत पर झुमते है। खास कर ग्रामीण इलाके में भी अब पहले वाला माहौल नहीं मिल पाता है।होली जैसे पर्व पर उत्साह व उमंग की जगह खामोशी से लोग इस पर्व को बिता देते हैं। रंग और पकवानों की तरह गीतों के बिना भी लोक पर्व होली की कल्पना नहीं की जा सकती। होली के कुछ हफ़्तों पहले से ही ढोल-मंजीरे के साथ टोलियां बनाकर होली गाए जाने लगती है। होली के दिन घर-घर में गीत गाते हुए, फाग गाते हुए ही रंग-अबीर लगाने, पुए-पकवान खाने की परंपरा रही है। लेकिन अब धीरे-धीरे गांवों-शहरों में सामूहिक रूप से होली गाने-बजाने की परंपरा की यह डोर कमजोर पड़ रही है।

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