सोहराय पर्व काे लेकर क्षेत्र में उत्साह का माहौल बनने लगा है। आदिवासी समाज के इस 6 दिवसीय महान पर्व ठाकुरगंज प्रखंड के बेसरबाटी पंचायत सहित आस-पास के क्षेत्र में सोमवार को सोहराय पर्व सम्मेलन कार्यक्रम से शुरू हो गई। चुरली हाट के जाहेर स्थान में चुरली के जन्मवीर, बाघा टोला, बेसरबाटी, ईडल घटटु, बिरानगछ, माली टोला आदि गांवों के लोगों ने सामूहिक रूप से पूजा-अर्चना कर पर्व की शुरुआत की।
इस दौरान आदिवासी महिलाओं में फुलमनी मुर्मू, बाहा बेसरा, जुसरी सोरेन, लखी हेम्ब्रम, रेणुका पहान, धानो मुर्मू सहित महिलाओं ने परंपरागत सोहराय नृत्य किया। जिसका आनंद वहां के स्थानीय लोग व जनप्रतिनिधि ने खूब उठाया। आदिवासी समाज की संस्कृति काफी रोचक है। शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय प्रकृति पूजक होते हैं। पूरे देश में आदिवासियों का महान पर्व सोहराय पर्व का विशेष महत्व है। सोहराय पर्व को गोधन पूजन पर्व भी माना जाता है। पर्व में गाय बैल की पूजा आदिवासी समाज काफी उत्साह होकर करते हैं। मुख्य रूप से यह पर्व छह दिनों तक मनाया जाता है। जिसकी धूम पूरे क्षेत्र में देखने को मिलती है। कार्यक्रम के दौरान मांझी परगना संथाल समाज के अध्यक्ष सुबोध टुडू, सचिव मुकेश हेम्ब्रम, एवं मंच संचालन के रूप में विजय मरांडी, ग्रामीण लखीराम मुर्मू, रमेश सोरेन,चतुर हासदा, महावीर मुर्मू,रविलाल मरांडी सहित सैकड़ों लोग मौजूद थे।
सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा:-
आदिवासियों में सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है। इस बारे में मांझी परगना विदिन समाज के अध्यक्ष चतरू हांसदा ने बताया कि जब मृत्युलोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस काल में पशुओं का सृजन स्वर्गलोक में होता था। मानव जाति की मांग पर मारांगबुरु अर्थात शिवजी स्वर्ग पहुंचे और अयनी गाय, बयनी गाय, सुगी गाय, सावली गाय, करी गाय, कपिल गाय, सिरे रे वरदा बैल से मृत्युलोक में चलने की अपील की जो नही मानने पर शिवजी ने कहा कि मंचपुरी में मानव युगो-युगो तक तुम्हारी पूजा करेगा। तब वे लोग राजी होकर धरती में आए। उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई।
पहले दिन से अंतिम दिन तक कैसे मनाते हैं पर्व:-
पर्व के पहला दिन गढ़ पूजा पर चावल गुंडी के कई खंड का निर्माण कर पहला खंड में एक अंडा रखा जाता है। गाय-बैलों को इकट्ठा कर छोड़ा जाता है, जो गाय या बैल अंडे को फोड़ता या सुंघता है। उसकी भगवती के नाम पर पहली पूजा की जाती है तथा उन्हें भाग्यवान माना जाता है। इसी दिन से बैल गायों के सिंग पर प्रतिदिन तेल लगाया जाता है। दूसरे दिन गोहाल पूजा पर मांझी थान में युवकों द्वारा लठ खेल का प्रदर्शन किया जाता है। रात्रि को गोहाल में पशुधन के नाम पर पूजा की जाती है। खानपान के बाद फिर नृत्य गीत का दौर चलता है। तीसरे दिन खुंटैव पूजा पर प्रत्येक घर के द्वार पर बैलों को बांधकर पीठा पकवान का माला पहनाया जाता है और ढोल ढाक बजाते हुए पीठा को छीनने का खेल होता है। चौथे दिन जाली पूजा पर घर-घर में चंदा उठाकर प्रधान को दिया जाता है और सोहराय गीतों पर नृत्य गीत चलता है। पांचवा दिन हांकु काटकम कहलाता है। इस दिन आदिवासी लोग मछली, ककड़ी पकड़ते है। छठे दिन आदिवासी झूंड में शिकार के लिए निकलते है। शिकार में प्राप्त खरगोश, तीतर आदि जन्तुओं को मांझीथान में इकठ्ठा कर घर-घर प्रसादी के रुप में बांटा जाता है।
सोहराय में गीत नृत्य का विशेष महत्व:-
सोहराय में गीत नृत्य का अपना एक विशेष महत्व है। जिसके लिए आदिवासी महिलाओं ने परंपरागत सोहराय नृत्य, लागड़े नृत्य, डांटा नृत्य, दोंग नृत्य व जाले नृत्य प्रस्तुत कर समां बांध दिया।
प्राकृतिक प्रकोपों से रक्षा के लिए ईश्वर से कामना:-
सोहराय पर्व पर प्राकृतिक प्रकोपों से रक्षा के लिए ईश्वर से कामना की जाती है। इसके लिए संताल अपने ईष्टदेव की पूजा-अर्चना कर गलतियों की माफी मांगते हैं।
विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।
सोहराय पर्व काे लेकर क्षेत्र में उत्साह का माहौल बनने लगा है। आदिवासी समाज के इस 6 दिवसीय महान पर्व ठाकुरगंज प्रखंड के बेसरबाटी पंचायत सहित आस-पास के क्षेत्र में सोमवार को सोहराय पर्व सम्मेलन कार्यक्रम से शुरू हो गई। चुरली हाट के जाहेर स्थान में चुरली के जन्मवीर, बाघा टोला, बेसरबाटी, ईडल घटटु, बिरानगछ, माली टोला आदि गांवों के लोगों ने सामूहिक रूप से पूजा-अर्चना कर पर्व की शुरुआत की।
इस दौरान आदिवासी महिलाओं में फुलमनी मुर्मू, बाहा बेसरा, जुसरी सोरेन, लखी हेम्ब्रम, रेणुका पहान, धानो मुर्मू सहित महिलाओं ने परंपरागत सोहराय नृत्य किया। जिसका आनंद वहां के स्थानीय लोग व जनप्रतिनिधि ने खूब उठाया। आदिवासी समाज की संस्कृति काफी रोचक है। शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय प्रकृति पूजक होते हैं। पूरे देश में आदिवासियों का महान पर्व सोहराय पर्व का विशेष महत्व है। सोहराय पर्व को गोधन पूजन पर्व भी माना जाता है। पर्व में गाय बैल की पूजा आदिवासी समाज काफी उत्साह होकर करते हैं। मुख्य रूप से यह पर्व छह दिनों तक मनाया जाता है। जिसकी धूम पूरे क्षेत्र में देखने को मिलती है। कार्यक्रम के दौरान मांझी परगना संथाल समाज के अध्यक्ष सुबोध टुडू, सचिव मुकेश हेम्ब्रम, एवं मंच संचालन के रूप में विजय मरांडी, ग्रामीण लखीराम मुर्मू, रमेश सोरेन,चतुर हासदा, महावीर मुर्मू,रविलाल मरांडी सहित सैकड़ों लोग मौजूद थे।
सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा:-
आदिवासियों में सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है। इस बारे में मांझी परगना विदिन समाज के अध्यक्ष चतरू हांसदा ने बताया कि जब मृत्युलोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस काल में पशुओं का सृजन स्वर्गलोक में होता था। मानव जाति की मांग पर मारांगबुरु अर्थात शिवजी स्वर्ग पहुंचे और अयनी गाय, बयनी गाय, सुगी गाय, सावली गाय, करी गाय, कपिल गाय, सिरे रे वरदा बैल से मृत्युलोक में चलने की अपील की जो नही मानने पर शिवजी ने कहा कि मंचपुरी में मानव युगो-युगो तक तुम्हारी पूजा करेगा। तब वे लोग राजी होकर धरती में आए। उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई।
पहले दिन से अंतिम दिन तक कैसे मनाते हैं पर्व:-
पर्व के पहला दिन गढ़ पूजा पर चावल गुंडी के कई खंड का निर्माण कर पहला खंड में एक अंडा रखा जाता है। गाय-बैलों को इकट्ठा कर छोड़ा जाता है, जो गाय या बैल अंडे को फोड़ता या सुंघता है। उसकी भगवती के नाम पर पहली पूजा की जाती है तथा उन्हें भाग्यवान माना जाता है। इसी दिन से बैल गायों के सिंग पर प्रतिदिन तेल लगाया जाता है। दूसरे दिन गोहाल पूजा पर मांझी थान में युवकों द्वारा लठ खेल का प्रदर्शन किया जाता है। रात्रि को गोहाल में पशुधन के नाम पर पूजा की जाती है। खानपान के बाद फिर नृत्य गीत का दौर चलता है। तीसरे दिन खुंटैव पूजा पर प्रत्येक घर के द्वार पर बैलों को बांधकर पीठा पकवान का माला पहनाया जाता है और ढोल ढाक बजाते हुए पीठा को छीनने का खेल होता है। चौथे दिन जाली पूजा पर घर-घर में चंदा उठाकर प्रधान को दिया जाता है और सोहराय गीतों पर नृत्य गीत चलता है। पांचवा दिन हांकु काटकम कहलाता है। इस दिन आदिवासी लोग मछली, ककड़ी पकड़ते है। छठे दिन आदिवासी झूंड में शिकार के लिए निकलते है। शिकार में प्राप्त खरगोश, तीतर आदि जन्तुओं को मांझीथान में इकठ्ठा कर घर-घर प्रसादी के रुप में बांटा जाता है।
सोहराय में गीत नृत्य का विशेष महत्व:-
सोहराय में गीत नृत्य का अपना एक विशेष महत्व है। जिसके लिए आदिवासी महिलाओं ने परंपरागत सोहराय नृत्य, लागड़े नृत्य, डांटा नृत्य, दोंग नृत्य व जाले नृत्य प्रस्तुत कर समां बांध दिया।
प्राकृतिक प्रकोपों से रक्षा के लिए ईश्वर से कामना:-
सोहराय पर्व पर प्राकृतिक प्रकोपों से रक्षा के लिए ईश्वर से कामना की जाती है। इसके लिए संताल अपने ईष्टदेव की पूजा-अर्चना कर गलतियों की माफी मांगते हैं।