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बिंदु अग्रवाल की कविता #11 ( निःशब्द सौंदर्य )

सारस न्यूज, गलगलिया, किशनगंज।

निःशब्द सौंदर्य
वह अनुपम अद्वितीय यौवन, सिर पर पत्थरों का भार ली, एक हाथ से अपने  आँचल को संभालती।
हिरनी सी सजल आँखे उसकी विवशता को दर्शाते, सजने सँवरने के दिन, नैन कर्मपथ को निहारते। हृदय कर्म में तल्लीन।
कोमल नाजुक से पैर कंकरीली,पथरीली जमील, उसका निःशब्द सौंदर्य पत्थरों के बोझ से दबा जा रहा था।
उसके परिश्रम के बूते महल बनाया जा रहा था।
विव्हल अंतरात्मा प्रसंशा सुनने को आतुर। स्वपनिल सपने सजाने की उम्र, पत्थर ढोने को मजबूर।
हृदय को द्रवित करता यह मंजर ना जाने कब मिलेगी ऊसर मंजिल? पूछ रहा उससे, उसका"निःशब्द सौंदर्य"           बिंद अग्रवाल किशनगंज, बिहार।

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