विजय कुमार गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।
कविता बन जाती है…
मैं नही लिखती..
लिखाई मुझे कब
रास आती है…?
जब भी उमड़ता है
कोई भाव मेरे अंदर
मेरी भावनाएं कविता
बन जाती है……
वही समझेगा इन शब्दों को
जो इन भावों से गुजरा होगा,
खाकर ठोकर जमाने की
कुंदन सा वह निखरा होगा….
वर्ना कुछ भी लिख ले कोई
यह महज लकीर रह जाती है
मेरी भावनाएं कविता बन जाती है…..
जब डूबता उतराता है मन
अतीत के बेरहम पन्नो पर…
कुछ खुशनुमा लमहे भी
कुछ अधूरी ख्वाहिशों से
असहज होने लगता है में
मेरी कलम मेरे चेहरे पर
एक अलग मुस्कान सजाती है।
मेरी भावनाएं कविता बन जाती है…
कुछ कल्पनाएं भी हैं
कुछ सच्चाई भी…
कुछ बुराई भी ।
कुछ अच्छाई भी,
नव कलियों से शब्द मेरे
मेरे जीवन को सुरभित
कर जाती है।
मेरी भावनाएं कविता बन जाती है…
बिंदु अग्रवाल
(शिक्षिका सह कवियत्री, लेखिका किशनगंज बिहार)
















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