बिहार के अररिया जिले की भारत-नेपाल सीमा से सटा सिकटी विधानसभा क्षेत्र भौगोलिक चुनौतियों और राजनीतिक उठापटक का अनोखा मेल है। यह इलाका न सिर्फ अपनी सीमावर्ती स्थिति के कारण अहम है, बल्कि यहां की प्रकृति और राजनीति दोनों ही लगातार करवट बदलती रही हैं।
सिकटी क्षेत्र से होकर बहने वाली बकरा और नूना नदियाँ अपने बदलते प्रवाह के लिए जानी जाती हैं। हर साल ये नदियाँ अपने रास्ते बदल देती हैं, जिससे हजारों लोगों को कटाव और विस्थापन की पीड़ा झेलनी पड़ती है। भूमि कटाव से जहां एक ओर खेती-बाड़ी पर असर पड़ता है, वहीं दूसरी ओर लोगों को अपने घर-ज़मीन छोड़कर पलायन को मजबूर होना पड़ता है। साल दर साल यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, लेकिन समाधान की दिशा में ठोस पहल अब तक नदारद है।
राजनीतिक दृष्टिकोण से भी सिकटी का इतिहास काफी रोचक रहा है। इस विधानसभा सीट का गठन वर्ष 1977 में हुआ था। तब से अब तक यहां 11 बार चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से भारतीय जनता पार्टी ने चार बार जीत दर्ज की है। कांग्रेस पार्टी को तीन बार सफलता मिली, जबकि दो बार निर्दलीय उम्मीदवारों ने मतदाताओं का भरोसा जीता। इसके अलावा एक-एक बार जनता दल और जनता दल यूनाइटेड को भी जनादेश मिला।
सिकटी की राजनीतिक धारा भी लगभग वैसी ही बहाव वाली है जैसी इसकी नदियों की — कभी इधर, तो कभी उधर। बदलती राजनीतिक ताकतों के बीच क्षेत्र की मूलभूत समस्याएं जैसे बाढ़, कटाव, विस्थापन और अधोसंरचना की कमी अब भी जस की तस बनी हुई हैं।
स्थानीय लोगों की अपेक्षा है कि अब कोई ऐसा नेतृत्व सामने आए जो न केवल चुनाव जीते, बल्कि इस क्षेत्र की स्थायी समस्याओं का समाधान भी करे। क्योंकि सिकटी को अब जरूरत है एक स्थिर राजनीति और ठोस विकास की — जो इसकी बहती नदियों और बदलते सियासी मिजाज दोनों को संभाल सके।
सारस न्यूज, वेब डेस्क।
बिहार के अररिया जिले की भारत-नेपाल सीमा से सटा सिकटी विधानसभा क्षेत्र भौगोलिक चुनौतियों और राजनीतिक उठापटक का अनोखा मेल है। यह इलाका न सिर्फ अपनी सीमावर्ती स्थिति के कारण अहम है, बल्कि यहां की प्रकृति और राजनीति दोनों ही लगातार करवट बदलती रही हैं।
सिकटी क्षेत्र से होकर बहने वाली बकरा और नूना नदियाँ अपने बदलते प्रवाह के लिए जानी जाती हैं। हर साल ये नदियाँ अपने रास्ते बदल देती हैं, जिससे हजारों लोगों को कटाव और विस्थापन की पीड़ा झेलनी पड़ती है। भूमि कटाव से जहां एक ओर खेती-बाड़ी पर असर पड़ता है, वहीं दूसरी ओर लोगों को अपने घर-ज़मीन छोड़कर पलायन को मजबूर होना पड़ता है। साल दर साल यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है, लेकिन समाधान की दिशा में ठोस पहल अब तक नदारद है।
राजनीतिक दृष्टिकोण से भी सिकटी का इतिहास काफी रोचक रहा है। इस विधानसभा सीट का गठन वर्ष 1977 में हुआ था। तब से अब तक यहां 11 बार चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से भारतीय जनता पार्टी ने चार बार जीत दर्ज की है। कांग्रेस पार्टी को तीन बार सफलता मिली, जबकि दो बार निर्दलीय उम्मीदवारों ने मतदाताओं का भरोसा जीता। इसके अलावा एक-एक बार जनता दल और जनता दल यूनाइटेड को भी जनादेश मिला।
सिकटी की राजनीतिक धारा भी लगभग वैसी ही बहाव वाली है जैसी इसकी नदियों की — कभी इधर, तो कभी उधर। बदलती राजनीतिक ताकतों के बीच क्षेत्र की मूलभूत समस्याएं जैसे बाढ़, कटाव, विस्थापन और अधोसंरचना की कमी अब भी जस की तस बनी हुई हैं।
स्थानीय लोगों की अपेक्षा है कि अब कोई ऐसा नेतृत्व सामने आए जो न केवल चुनाव जीते, बल्कि इस क्षेत्र की स्थायी समस्याओं का समाधान भी करे। क्योंकि सिकटी को अब जरूरत है एक स्थिर राजनीति और ठोस विकास की — जो इसकी बहती नदियों और बदलते सियासी मिजाज दोनों को संभाल सके।
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