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बिंदु अग्रवाल की कविता # 23 (भारत और भ्रष्टाचार)

विजय गुप्त, सारस न्यूज़, गलगलिया।

भारत और भ्रष्टाचार

कभी-कभी सोचने को
मजबूर हो जाती हूं,
कहाँ है इक्कीसवीं सदी का
भारत? कहाँ है?

आजाद भारत में
क्या सचमुच आजाद हैं हम?
तन से भले ही आजाद हैं,
क्या अपनी संकीर्ण मानसिकता,
अपनी स्वार्थी प्रविर्ती से
आजाद हुए हैं हम?

76 वर्ष आजादी के,
भारत गाँवों का देश
गाँव में बसता भारत,
कभी कोशिश करो सुनने की,
अंधेरी गलियों की चीख,
हे! आजाद भारत माँ,
हम अभी भी अंधेरों के गुलाम हैं।
कीचड़ से भरी पगडंडियां
मजबूर और वीरान हैं।

सरकारें बनती है बिगड़ती है,
एक दूसरे पर आरोप प्रत्यऱोप
लांछनों का दौर,
आम जनता की आवाज
दब सी जाती है,
गरीबों के घर जाने को निकली
सहायता राशी
गुमनाम रास्तों में कहीं
खो जाती है।

क्या आजादी के मतवालों का
यही है भारत?
क्या आजादी की बलिवेदी पर
खुद को कुर्बान करने वाले वीरो ने
इसी भारत की कल्पना की थी?
शायद नही।
आज का भारत बन चुका है
भ्र्ष्टाचार, घोटालों का देश।
अपने निजी स्वार्थ के लिये
अपने नैतिक मूल्यों को भी
बेचने से नही हिचकता
आज का मानव।
जब भी गौर से सोचती हूं
आँखों से अश्रु धार बह जाती है,
भ्र्ष्टाचार के आगे
इंसानियत
दम तोड़ती नजर आती है।

(बिंदु अग्रवाल)

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