भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में शामिल अरावली पहाड़ों को लेकर चल रहा विवाद अब सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई कर रहा है। यह मामला अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा और उससे जुड़े पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर है, जिस पर देशभर में तीखी बहस छिड़ी हुई है।
सुनवाई से पहले कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को पत्र लिखकर सरकार के प्रस्तावित फैसले पर गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा पर्वत श्रृंखला की प्राकृतिक एकता को तोड़ सकती है और इसका दूरगामी नकारात्मक असर पर्यावरण पर पड़ेगा।
अरावली पर्वत श्रृंखला दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होकर करीब 650 से 700 किलोमीटर तक फैली हुई है। यह न केवल थार मरुस्थल को पूर्व की ओर फैलने से रोकती है, बल्कि भूजल संरक्षण, जैव विविधता और दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण नियंत्रण में भी अहम भूमिका निभाती है।
विवाद की जड़ तब सामने आई जब केंद्र सरकार ने अरावली पहाड़ियों की एक नई, ऊंचाई आधारित परिभाषा पेश की। इसके अनुसार, केवल वही भू-भाग ‘अरावली पहाड़ी’ माना जाएगा जिसकी ऊंचाई आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर अधिक हो। साथ ही, 500 मीटर की दूरी के भीतर स्थित दो या उससे अधिक ऐसी पहाड़ियों को ‘अरावली रेंज’ माना जाएगा।
पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि इस परिभाषा से अरावली क्षेत्र का बड़ा हिस्सा संरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएगा। अनुमान है कि हरियाणा और राजस्थान के करीब 90 प्रतिशत अरावली क्षेत्र इस नई परिभाषा में शामिल नहीं हो पाएंगे, जबकि ये इलाके पारिस्थितिकी के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं।
आलोचकों को आशंका है कि यदि यह परिभाषा लागू होती है तो बड़े पैमाने पर खनन, रियल एस्टेट परियोजनाओं और निर्माण गतिविधियों को कानूनी मंजूरी मिल सकती है। इससे न केवल जलस्तर नीचे जाएगा, बल्कि धूल प्रदूषण, वन्यजीवों को नुकसान और दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता के और बिगड़ने का खतरा बढ़ जाएगा।
सुनवाई से पहले जल संरक्षण कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह ने भी मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर फैसले पर पुनर्विचार की मांग की है। उन्होंने कहा कि अरावली केवल पहाड़ियों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसे टुकड़ों में बांटना प्रकृति के साथ अन्याय होगा।
वहीं केंद्र सरकार का पक्ष है कि नई परिभाषा वैज्ञानिक आधार पर तय की गई है और इसका उद्देश्य राज्यों में अलग-अलग मानकों के कारण पैदा हो रही अवैध खनन की समस्या पर नियंत्रण पाना है। हालांकि बढ़ते विरोध को देखते हुए केंद्र ने फिलहाल अरावली क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर रोक लगाने के निर्देश दिए हैं।
अब सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर टिकी है, जहां यह तय होगा कि पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन किस तरह साधा जाएगा और अरावली जैसी प्राचीन पर्वत श्रृंखला का भविष्य क्या होगा।
सारस न्यूज़, वेब डेस्क।
भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में शामिल अरावली पहाड़ों को लेकर चल रहा विवाद अब सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए सुनवाई कर रहा है। यह मामला अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा और उससे जुड़े पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर है, जिस पर देशभर में तीखी बहस छिड़ी हुई है।
सुनवाई से पहले कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को पत्र लिखकर सरकार के प्रस्तावित फैसले पर गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने चेतावनी दी है कि अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा पर्वत श्रृंखला की प्राकृतिक एकता को तोड़ सकती है और इसका दूरगामी नकारात्मक असर पर्यावरण पर पड़ेगा।
अरावली पर्वत श्रृंखला दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात से होकर करीब 650 से 700 किलोमीटर तक फैली हुई है। यह न केवल थार मरुस्थल को पूर्व की ओर फैलने से रोकती है, बल्कि भूजल संरक्षण, जैव विविधता और दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण नियंत्रण में भी अहम भूमिका निभाती है।
विवाद की जड़ तब सामने आई जब केंद्र सरकार ने अरावली पहाड़ियों की एक नई, ऊंचाई आधारित परिभाषा पेश की। इसके अनुसार, केवल वही भू-भाग ‘अरावली पहाड़ी’ माना जाएगा जिसकी ऊंचाई आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर अधिक हो। साथ ही, 500 मीटर की दूरी के भीतर स्थित दो या उससे अधिक ऐसी पहाड़ियों को ‘अरावली रेंज’ माना जाएगा।
पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि इस परिभाषा से अरावली क्षेत्र का बड़ा हिस्सा संरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएगा। अनुमान है कि हरियाणा और राजस्थान के करीब 90 प्रतिशत अरावली क्षेत्र इस नई परिभाषा में शामिल नहीं हो पाएंगे, जबकि ये इलाके पारिस्थितिकी के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं।
आलोचकों को आशंका है कि यदि यह परिभाषा लागू होती है तो बड़े पैमाने पर खनन, रियल एस्टेट परियोजनाओं और निर्माण गतिविधियों को कानूनी मंजूरी मिल सकती है। इससे न केवल जलस्तर नीचे जाएगा, बल्कि धूल प्रदूषण, वन्यजीवों को नुकसान और दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता के और बिगड़ने का खतरा बढ़ जाएगा।
सुनवाई से पहले जल संरक्षण कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह ने भी मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर फैसले पर पुनर्विचार की मांग की है। उन्होंने कहा कि अरावली केवल पहाड़ियों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसे टुकड़ों में बांटना प्रकृति के साथ अन्याय होगा।
वहीं केंद्र सरकार का पक्ष है कि नई परिभाषा वैज्ञानिक आधार पर तय की गई है और इसका उद्देश्य राज्यों में अलग-अलग मानकों के कारण पैदा हो रही अवैध खनन की समस्या पर नियंत्रण पाना है। हालांकि बढ़ते विरोध को देखते हुए केंद्र ने फिलहाल अरावली क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर रोक लगाने के निर्देश दिए हैं।
अब सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पर टिकी है, जहां यह तय होगा कि पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन किस तरह साधा जाएगा और अरावली जैसी प्राचीन पर्वत श्रृंखला का भविष्य क्या होगा।