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गलगलिया में ईद-उल-अजहा का पर्व अकीदत से मनाया गया, घरों में हुई कुर्बानी की रस्म।

विजय गुप्ता,सारस न्यूज, गलगलिया।

ईद-उल-अज़हा हज़रत इब्राहिम की कुर्बानी की याद के तौर पर मनाया जाता है। और मुसलमानों का यह खास पर्व बकरीद इस बार 10 जुलाई रविवार को मनाया गया।इस अवसर पर गलगलिया सीमावर्ती थाना क्षेत्र के ईदगाहों व मस्जिदों में ईद उल अजहा की नमाज पढ़ी गई। नमाज अदा करने के बाद सभी ने एक दूसरे को बकरीद की मुबारक बाद दी। बकरीद पर सुरक्षा के मद्देनजर गलगलिया थाना क्षेत्र के चौक चौराहों पर पुलिस की गश्त तेज थी। बताया गया कि इस दिन हज़रत इब्राहिम अल्लाह के हुक्म पर अल्लाह के प्रति अपनी वफादारी दिखाने के लिए अपने बेटे हज़रत इस्माइल को कुर्बान करने पर राजी हुए थे।

इस पर्व का मुख्य लक्ष्य लोगों में जनसेवा और अल्लाह की सेवा के भाव को जगाना है। अल्लाह के पास केवल इन्सान के दिल की कैफ़ियत पहुँचती है। यानि जब इन्सान का हृदय पवित्र हो जाएगा और अल्लाह के लिए उसका पूर्ण समर्पण होगा तो इसका प्रभाव उसके पूरे जीवन और समाज पर भी पड़ेगा। वह हर बुरे काम से और मानवता के विरुद्ध कोई भी काम करने से बचेगा। अल्लाह को ख़ुश रखने के लिए लोगों के साथ में भलाई करेगा।

दयावान बनेगा और इस तरह एक सभ्य और आध्यात्मिकता से पूर्ण समाज के निर्माण में सहायक सिद्ध होगा।जानकारी देते हुए मिनारा जामा मस्जिद गलगलिया के मौलाना मो० मैसुद्दीन साहब ने कहा कि ईद-उल-अजहा का यह पर्व इस्लाम के पांचवें सिद्धान्त हज की भी पूर्ति करता है। आदिकाल से ही जब ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की तो इन्सान को सही जीवन जीने के लिए अपने पसंदीदा बंदों या नबियों के द्वारा ऐसा संविधान और जीवन दर्शन भी भेजा जो मानव समाज को क़ुर्बानी अर्थात बलिदान का महत्त्व समझा सके और उसमें यह भावना भी पैदा कर सके।

इस संविधान के आदम से लेकर तमाम नबी अपने साथ लाये। इस संविधान या जीवन दर्शन में अन्य बातों के अलावा इन्सान को अपने अहंकार व अपनी प्रिय वस्तुओं को अल्लाह की राह में और उसकी इच्छा के लिए क़ुर्बान करने की भी शिक्षा दी गई। कुरान में बताया गया है कि एक दिन अल्लाह ने हज़रत इब्राहिम से सपने में उनकी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी मांगी। हज़रत इब्राहिम को सबसे प्रिय अपना बेटा लगता था। उन्होंने अपने बेटे की कुर्बानी देने का निर्णय किया। लेकिन जैसे ही हज़रत इब्राहिम ने अपने बेटे की बलि लेने के लिए उसकी गर्दन पर चाक़ू रखा अल्लाह चाकू की धार से हज़रत इब्राहिम के पुत्र को बचाकर जन्नत से एक दुम्बा(भेड़) भेजकर कुर्बानी दिलवा दी। इसी कारण इस पर्व को बकरीद के नाम से भी जाना जाता है।

इसी अवसर पर पवित्र शहर मक्का में हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल और हज़रत इब्राहीम की पत्नी व हज़रत इस्माईल की मां हज़रत हाज़रा की सुन्नतों को अदा करते हैं। हज़ का मुख्य कार्यक्रम ज़िलहिज्ज की 8 तारीख़ से शुरू होकर पाँच दिन अर्थात 12 ज़िलहिज्ज तक चलता है। जिसमें 10 ज़िलहिज्ज को क़ुर्बानी भी शामिल है।

कुर्बानी का महत्व

क़ुर्बानी का महत्त्व यह है कि इन्सान ईश्वर या अल्लाह से असीम लगाव व प्रेम का इज़हार करे और उसके प्रेम को दुनिया की वस्तु या इन्सान से ऊपर रखे। इसके लिए वह अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु को क़ुर्बान करने की भावना रखे। क़ुर्बानी के समय मन में यह भावना होनी चाहिए कि हम पूरी विनम्रता और आज्ञाकारिता से इस बात को स्वीकार करते हैं कि अल्लाह के लिए ही सब कुछ है।

कुर्बानी का उद्देश्य

ईदे क़ुर्बां अर्थात् ईद-उल-अज़हा पर क़ुर्बानी का एक उद्देश्य ग़रीबों को भी अपनी ख़ुशियों में भागीदार बनाना है। इसीलिए कहा गया है कि क़ुर्बानी के ग़ोश्त को तीन हिस्सों में बाँटों। एक हिस्सा अपने लिए दूसरा अपने पड़ोसियों के लिए और तीसरा ग़रीबों व यतीमों के लिए रखो। यह भी कहा गया है कि ग़रीबों तक उनका हिस्सा स्वयं ही पहुँचाओ। अर्थात उन्हें मांगने के लिए तुम्हारे दरवाज़े तक न आना पड़े। वास्तव में इस हुक़्म या निर्देश का उद्देश्य समाज में समानता की भावना स्थापित करना और पड़ोसियों व ग़रीबों को भी अपनी ख़ुशियों में शामिल करना है। दयालुता और ग़रीबों के लिए चिंता या उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखना भी इसका एक उद्देश्य है।

ईद-उल-अज़हा को कैसे मनाया जाता है

ईद-उल-अज़हा के दिन मुसलमान किसी जानवर जैसे बकरा, भेड़, ऊंट आदि की कुरबानी देते हैं। इस दिन सभी लोग साफ-पाक होकर नए कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ते हैं। नमाज़ पढ़कर आने के बाद ही कुरबानी की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है। ईद उल फित्र की तरह ईद उल अज़हा में भी ज़कात देना अनिवार्य होता है ताकि खुशी के इस मौके पर कोई गरीब महरूम ना रह जाए।

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