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बिंदु अग्रवाल की कविता # 3 (हाँ ! मैं किसान हूँ)

बिंदु अग्रवाल

विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।

हाँ ! मैं किसान हूँ।

हाँ मैं किसान हूँ
आधार स्तम्भ हूँ देश का
वसुन्धरा की जान हूँ,
हाँ! मैं किसान हूँ…

मेरुदण्ड हूँ मैं देश का,
नीव की मैं ईंट हूँ।
अपने देश की मैं शान हूँ,
हाँ! मैं किसान हूँ….

धरती का सीना चीर कर
फसलों को लहराता हूँ।
आँधियों का करता सामना
ऐसा वीर महान हूँ।
हाँ! मैं किसान हूँ…

हाँ! मैं ही हूँ जिसने धरती के,
कण-कण का श्रृंगार किया।
बंजर भूमि की चिर के छाती,
नव जीवन का संचार किया।
कर्मशील है मेरा जीवन,
कर्म की पहचान हूँ।
हाँ! मैं किसान हूँ….

जब तन से गिरता पसीना मेरे,
तब महलों में चूल्हे जलते हैं।
मेरे हाथ की रेशम पहन के,
जवान भी दूल्हे बनते हैं।
अपनी हँसी मिटा के लाता,
हर चेहरे पे मुस्कान हूं।
हाँ! मैं किसान हूँ…

जेठ की चिलचिलाती धूप में
लू के थपेड़ों को सहता,
खेतों में हल चलता
तन से पसीना अविरल बहता।
गला सूखता बिन पानी के,
प्यास आसमान हूँ..
हाँ ! मैं किसान हूँ.….

कभी सूखे ने मुझको मारा
कभी बिजली ने जला दिया।
कभी आंधियां उड़ा ले गई
कभी वर्षा ने बहा दिया।
कितना दर्द सहूँ हे ईश्वर.
अखिर मैं इंसान हूँ।
हाँ! मैं किसान हूँ….

अथक, अनवरत करता मेहनत,
थक कर चूर हो जाता हूँ।
जग को इतना कुछ देकर भी,
मैं ही ऋणी कहलाता हूँ।
मैं हार के माटी में मिल जाता,
धरती की संतान हूँ..
हाँ! मैं किसान हूँ।

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