भारत-नेपाल की सीमा पर स्थित गलगलिया में तकनीक के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती रविवार को धूमधाम से मनाई गई। सभी सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों के तकनीकी विभाग में भगवान विश्वकर्मा की पूजा कर अपने शिल्प के उत्तरोत्तर वृद्धि की कामना की गई। वहीं गलगलिया निवासी वासुदेव शर्मा अपने फर्नीचर व हार्डवेयर दुकान प्रतिमा स्थापित कर धूमधाम से पूजा अर्चना की। इसके अलावे कई स्थानों पर भगवान विश्वकर्मा की प्रतिमाएं स्थापित कर कीर्तन-भजन के कार्यक्रम आयोजित किए गए।
जानकारों के अनुसार भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षाऋतु के अंत और शरदऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेजी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है। इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनाई जाती है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थीं, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा रचित ही थे। ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता भी विश्वकर्मा थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। विश्वकर्मा को देवताओं के शिल्पी के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है। कथा के अनुसार, काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था, परंतु जगह-जगह घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था। पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा, ‘तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण होगी। इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की जाने लगी।
विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।
भारत-नेपाल की सीमा पर स्थित गलगलिया में तकनीक के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती रविवार को धूमधाम से मनाई गई। सभी सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों के तकनीकी विभाग में भगवान विश्वकर्मा की पूजा कर अपने शिल्प के उत्तरोत्तर वृद्धि की कामना की गई। वहीं गलगलिया निवासी वासुदेव शर्मा अपने फर्नीचर व हार्डवेयर दुकान प्रतिमा स्थापित कर धूमधाम से पूजा अर्चना की। इसके अलावे कई स्थानों पर भगवान विश्वकर्मा की प्रतिमाएं स्थापित कर कीर्तन-भजन के कार्यक्रम आयोजित किए गए।
जानकारों के अनुसार भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षाऋतु के अंत और शरदऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेजी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है। इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनाई जाती है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थीं, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा रचित ही थे। ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता भी विश्वकर्मा थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। विश्वकर्मा को देवताओं के शिल्पी के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है। कथा के अनुसार, काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था, परंतु जगह-जगह घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था। पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा, ‘तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण होगी। इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की जाने लगी।
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