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बिंदु अग्रवाल की कविता #18 (मजदूर की मजबूरी)

विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।

वो चल पड़ा अपने कर्म के पथ पर
लिए अपने हुनर का नूर,
अपने घर परिवार से दूर
किसी अनजान के बीच सुदूर।

किसी शहर में काम खोजता
दर-दर भटकने को मजबूर,
जिसकी कोई पहचान नहि,
मान नहि, सम्मान नहि
कहलाता है वो मजदूर।

कई अट्टालिकाओं की
नीवं उसने है रखी,
कई नहरों को खोद
खेतों में नीर बहाया है।
दूसरों के सुख की खातिर
अपना सीकर बहाया है।

ना मिलता भोजन वक्त पे उसको
न ठीक से तन वह ढक पाता,
बच्चों के लिए दो जून की रोटी
वक्त पे नहि जुटा पाता।

भटका हुआ सा राही है वो
जिसकी कोई मंजिल नहीं,
दरिया की मझधार है जिसको
मिलता कभी साहिल नहि।

वह अपने मेहनत के बलबूते
दुनिया को सजाता है,
लाखों मजबूरी दिल में लेकर
वह “मजदूर ” कहलाता है।

बिंदु अग्रवाल
(किशनगंज, बिहार)

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