विजय कुमार गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।
बदलते एहसास
चारों ओर बस
दुश्मनी का मंजर है,
हर किसी के हाथ में
नफरतों का खंजर है,
न जाने कहाँ गुम हो गई
प्रेम के फूलों की बगिया,
हर दिल का आँगन अब
सूखी धरती बंजर है।
जज्बातों को अब कहीं
स्नेहलेप नहि मिलता,
देख किसी अपने को
अब चेहरा क्यों नहीं खिलता,
क्यो किसी को देख होठों पे
नक़ली मुस्कान सजाते हैं?
क्यों खून के रिश्तों को भी हम
मजबूरी में अपनाते हैं?
क्यो किसी के मिलने पर हम
कहते हैं वक़्त नही है,
या फिर बदल गई है दुनियां
क्या यह बात सही है?
तौर-तरीका जीने का
हम सबने बदल दिया है
अपने हाथों ही खुद पे
हमने प्रहार किया है।
मानव बन हमने ही तो
मानवता को शर्मसार किया है।
बिंदु अग्रवाल