मैंने उसे कभी चैन से सोते नहीं देखा। मजबूरी का रोना कभी रोते नहीं देखा।। हर वक्त थामे रहती थी वह पतवार साहस की । मुश्किलों में धैर्य कभी खोते नहीं देखा।।
वह अकेली अबला ही सौ मर्दों पे भारी थी। अकेले लड़ी जमाने से, क्योंकि मां थी वह नारी थी।। उसने अपना फर्ज निभाया, भूखे रात गुजारी थी। वक्त का पहिया घूम रहा था,अब बच्चों की बारी थी।।
बच्चे बड़े हुए, शादियां हुई, सब का घर बस गया। जवानी गुजारी तन पे बुढ़ापे का शिकंजा कस गया।। घर भरा था बाल बच्चों से, घर का आँगन सुरभित था। पर बच्चों की बोली सुनने को, उसका अंतर्मन तरस गया।।
बुढ़ापे में बच्चे साथ छोड़ जाते हैं। इस परम सत्य को वो भूल जाते हैं।। एक दिन काल चक्र उनपर भी मंडराएगा। जब बुढ़ापे का शिकंजा अपना परचम लहराएगा।।
माता-पिता के दम पर ही तो आज हमारी पहचान है। उनके कर्ज को उतार पाना कहो कहां आसान है।। आज मैं जो भी, जैसी भी हूं मेरी मां का अरमान है। मां के दम से है मेरी हस्ती मां से ही पहचान है।।
मेरी मां को समर्पित
बिंदु अग्रवाल
विजय कुमार गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।
मां
मैंने उसे कभी चैन से सोते नहीं देखा। मजबूरी का रोना कभी रोते नहीं देखा।। हर वक्त थामे रहती थी वह पतवार साहस की । मुश्किलों में धैर्य कभी खोते नहीं देखा।।
वह अकेली अबला ही सौ मर्दों पे भारी थी। अकेले लड़ी जमाने से, क्योंकि मां थी वह नारी थी।। उसने अपना फर्ज निभाया, भूखे रात गुजारी थी। वक्त का पहिया घूम रहा था,अब बच्चों की बारी थी।।
बच्चे बड़े हुए, शादियां हुई, सब का घर बस गया। जवानी गुजारी तन पे बुढ़ापे का शिकंजा कस गया।। घर भरा था बाल बच्चों से, घर का आँगन सुरभित था। पर बच्चों की बोली सुनने को, उसका अंतर्मन तरस गया।।
बुढ़ापे में बच्चे साथ छोड़ जाते हैं। इस परम सत्य को वो भूल जाते हैं।। एक दिन काल चक्र उनपर भी मंडराएगा। जब बुढ़ापे का शिकंजा अपना परचम लहराएगा।।
माता-पिता के दम पर ही तो आज हमारी पहचान है। उनके कर्ज को उतार पाना कहो कहां आसान है।। आज मैं जो भी, जैसी भी हूं मेरी मां का अरमान है। मां के दम से है मेरी हस्ती मां से ही पहचान है।।
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