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बिंदु अग्रवाल की कविता #68 (शीर्षक:-गुनहगार हूं मैं…)

गुनहगार हूं मैं

माना कि तुम्हारी मोहब्बत का गुनहगार हूं मैं
पर तुमसे जुदा होकर कहां आबाद हूं मैं ।।

खाना है पर भूख नहीं बिस्तर है पर नींद नहीं
खयालों में तेरी कुछ इस कदर बर्बाद हूं मैं।।

तकरार होती है रोज मुझसे ही मेरे अंदर
तुमसे मिलने को उतना ही बेकरार हूं मैं।।

मिली थी तुम मुझे जिंदगी में बहार बनकर।
हिज्र में तेरी वह गुलशन वीरान हूं मैं।।

भरी महफिल में भी डसने लगी है तनहाइयां
कैसे मान लूं तुम बिन गुल-ए-गुलजार हूं मैं।।

नहीं जचता कोई रंग कोई खुशबू रास नहीं आती
तेरी चाहत के रंग बिना फीका और बेजार हूं मैं।

जिंदा हूं तुझसे जुदा होकर अफसोस है मुझे
तेरी भीगी पलकों के लिए सनम शर्मसार हूं मैं।।

कभी तो मिलोगी तुम मुझे इस जन्म या उस जन्म
कभी ना खत्म होने वाला वह इंतजार हूं मैं।।

बिंदु अग्रवाल

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