साहित्य डेस्क, सारस न्यूज़।
बाँझ
उसका भी तो हृदय मचलता होगा
तरसती होंगी बाँहे,
कोई नन्हे-नन्हे होठों से
उसे माँ कह कर बुलाये।
चूमें उसके गालों को,
उसके बालों से खेले।
पकड़ कर उसका आँचल,
आगे पीछे डोले।
क्यों दर्द को उसके भूल यह दुनिया
बाँझ उसे कह जाती है?
इतना कठोर निर्मम शब्द यह,
अंतर छलनी कर जाती है।
कहाँ है उसकी गलती इसमें
वह माँ नही बन पाई?
रोती उसकी अंतर आत्मा
देती हरदम दुहाई।
पुरुषों को जग कुछ नही कहता
क्यों मौन बना रह जाता है?
पिता नही बन पाया वह भी
पर वह बाँझ नही कहलाता है।
अपने इस आजीवन दुःख को
औरत कैसे सहती है?
सुन कर बाँझ शब्द का ताना
सौ-सौ बार वह मरती है।
उसके दुःख को समझ न पाया
कोई इस संसार मे।
बाँझ-बाँझ शब्द रह-रह गूँजे
उसके सांसो के हर तार में।
बिंदु अग्रवाल, किशनगंज, बिहार


















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