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बिंदु अग्रवाल की कविता # 33 (धरती पुत्र)

विजय कुमार गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।

धरती पुत्र

आज मैंने कोई प्रेम का गीत नही लिखा
आज मैंने तुम्हें अपना मनमीत नही लिखा,
आज हृदय द्रवित था देख वह नज़ारा,
आज कागज पे मैंने प्रीत नही लिखा।

आज सोचा लिखती हूं उस इंसानी वर्ग को
जो मानव रूप में इस धरा पे आया है।
वही तो चलाता है इस संसार को,
उसमे भगवान का रूप समाया है।

इस भरी बारिश में,खुले वितान के नीचे
बारिश के पानी में,अपना पसीना मिलाया है।
खुद भुखे रहता, उदर जले,जल पीता
भूख हमारी मिटाने को,उसने बीड़ा उठाया है।

मैंने देखा है उसे जेठ की ,चिलचिलाती धूप में,
मूंग के दानों को चुनते,सहेजते हुए।
आषाढ़ की अंधेरी अधरतिया में,
उसने अपना सुख चैन गंवाया है।

मैंने देखा है उसेअसंभव को भी
संभव करते हुए,
बंजर भूमि में बीज सृजन का लगाते हुए।
घुटनों तक कीचड़ में डूब कर उसने
धरती को स्वर्ग सा सजाया है।

उसका हृदय भी मचलता होगा,
बारिश में प्रियसी संग चाय का
आनंद सहेजने को,कुछ अनमोल
पल खुशी के समेटने को….।
पर उसने अपने कर्म को ही
जीवन का लक्ष्य बनाया है।
हाँ..!हमारे लिए ही तो वह
अवधूत,वह धरती पुत्र,
इस धरा पे आया है..।

स्वरचित, बिंदु अग्रवाल शिक्षिका
सह कवयित्री लेखिका किशनगंज
बिहार

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