हिंदू धर्म में नवरात्रि को बहुत ही शुभ और पवित्र माना जाता है। नवरात्र को लेकर ठाकुरगंज नगर, सीमावर्ती क्षेत्र गलगलिया एवं सटे बंगाल के इलाकों में तैयारियां जोरों पर है। सड़कों पर विशाल पूजा पंडाल खड़े होने लगे हैं। पंडालों को अधिक से अधिक आकर्षक बनाने के लिए उन्हें देश-दुनिया के चर्चित मंदिर, ऐतिहासिक स्मारकों की शक्ल दी जा रही है। मां दुर्गा की प्रतिमा निर्माण का काम भी तेजी से हो रहा है।मान्यता है कि नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा अलग-अलग रूप में आपके घर में विराजमान रहती हैं। इन नौ दिनों में श्रद्धालु और भक्त पूरी आस्था और श्रद्धा से मां के नौ रूपों की आराधना करते हैं। देशभर में होने वाली शक्ति उपासना में दुर्गापूजा का एक अहम स्थान है। हर क्षेत्र में विशेषकर बंगाल में व्यापक रूप से मनाये जाने वाले इस पर्व पर जैसे आस्था का सागर ही उमड़ आता है। इसीलिए प्रतिवर्ष पूजा के समय हर ओर आस्था का एक वैभवशाली रूप देखने को मिलता है। इसके साथ ही दुर्गापूजा हर किसी के लिए अनूठे उल्लास, उत्साह और उमंगों का पर्व है। भारत ही नही दुर्गापूजा की धूम आज विदेशों में भी देखने को मिलती है। खास तौर पर उन देशों में जहां भारतीय बंगाली समाज के लोग जा बसे हैं। उनके साथ ही अन्य भारतीय भी मिलकर दुर्गापूजा मनाते हैं। हालांकि वहां उतनी भव्यता से पूजा नहीं होती परंतु फिर भी अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को इस पूजा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका के अतिरिक्त यूरोप के कई देशों में बसे भारतीय बंगाली लघु रूप में ही सही दुर्गापूजा अवश्य मनाते हैं। इन अवसरों पर वो बड़े गर्व से उस देश के लोगों को भी शामिल करते हैं। इस तरह भारत देश की रंगबिरंगी संस्कृति की झलक उनके सामने रखी जाती है।
महालया अर्थात मां दुर्गा का आगमन भोर:
दुर्गापूजा का पावन पर्व शरद ऋतु में आने वाले आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या से ही आरंभ होता है। उस दिन सुबह महालया की परंपरा है। महालया अर्थात मां दुर्गा की आगमन भोर। बांग्ला व संस्कृत भाषा में देवी की आगमनी के गीत गाए जाते हैं। रेडियो तथा टीवी पर दुर्गा की आराधना, दुर्गा सप्तशती का गान और दुर्गापूजा से जुड़ी कथाओं को संगीतमय लय में प्रसारित किया जाता है। दुर्गा स्तुति की यह मधुरिम अनुगूंज बंगभूमि के हर व्यक्ति के अंतर्मन में एक स्पंदन सा जगा देती है। इसके साथ उनमें पूजा का उत्साह आरंभ हो जाता है।
बंगाल को माना जाता है माँ दुर्गा का मायका:
बंगाल को प्राचीन समय से ही दुर्गा का मायका माना जाता है। मान्यता है कि दुर्गा के मायके आने का दिन ही पूजा समारोह का दिन है। हर वर्ष दुर्गा कैलाश पर्वत पर स्थित शिवधाम से अपनी संतानों सहित अपने मायके आती हैं। अमीर हो या गरीब सभी इस अवसर पर खुशियां मनाते हैं, नये वस्त्र खरीदते हैं, मित्र व संबंधियों को उपहार देते हैं।
देवी दुर्गा के उदय की कथा:
दुर्गा माँ अनेक शक्तियों के संचय की प्रतीक हैं। शक्ति की देवी दुर्गा के उदय की कथा हमें यही बताती है कि सभी प्रकार की शक्तियां एकरूप होकर किसी भी विनाशकारी ताकत को मिटा सकती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महिषासुर नामक राक्षस ने स्वर्ग और धरती पर अपना आतंक फैला रखा था। उस आतंक को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एक-एक कर उससे युद्ध किया। किंतु भैसे का रूप धारण किए महिषासुर ने सबको हरा दिया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसे कोई पुरुष नहीं मार सकता। पूरी तरह से हताश देवतागण ब्रह्मा, विष्णु शिव की शरण में पहुंचे। तब शिव ने अपनी क्रोधग्नि से एक दैवीय शक्ति को प्रकट किया जो स्त्री थी। इस शक्ति को सभी देवताओं ने अपने अस्त्र प्रदान किए जिससे वह महाशक्ति बन गई। सिंह पर सवार देवी ने महिषासुर को युद्ध के लिए ललकारा। फिर क्रोध भरी गर्जना के समय देवी ने दस भुजाओं में धारण अस्त्रों से उस दानव पर प्रहार किए। युद्ध के उपरांत महिषासुर का अंत हुआ। इस तरह पाप पर पुण्य की विजय हुई।
कब होती है प्रतिमाओं की स्थापना:
षष्ठी के दिन पुरोहित पहले घट यानी घड़े को पंडाल में रखते हैं। केले के वृक्ष को लाल किनारे वाली साड़ी पहनाई जाती है। तब पंडालों में दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित कर दी जाती है। विस्तृत पंडाल में सामने देवी की प्रतिमा स्थापित होती है। सिंहवाहिनी दस भुजाधारी माँ दुर्गा भाले से महिषासुर का मर्दन कर रही होती हैं। इस प्रतिमा के एक ओर उनके पुत्र गणेश एवं कार्तिक की मूर्तियां और दूसरी ओर लक्ष्मी तथा वीणाधारी सरस्वती विराजमान होती हैं। ये मूर्तियां देखने मे इतनी सजीव होती हैं कि मूर्तिकारों की कला की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता।
विजय गुप्ता, सारस न्यूज, गलगलिया।
हिंदू धर्म में नवरात्रि को बहुत ही शुभ और पवित्र माना जाता है। नवरात्र को लेकर ठाकुरगंज नगर, सीमावर्ती क्षेत्र गलगलिया एवं सटे बंगाल के इलाकों में तैयारियां जोरों पर है। सड़कों पर विशाल पूजा पंडाल खड़े होने लगे हैं। पंडालों को अधिक से अधिक आकर्षक बनाने के लिए उन्हें देश-दुनिया के चर्चित मंदिर, ऐतिहासिक स्मारकों की शक्ल दी जा रही है। मां दुर्गा की प्रतिमा निर्माण का काम भी तेजी से हो रहा है।मान्यता है कि नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा अलग-अलग रूप में आपके घर में विराजमान रहती हैं। इन नौ दिनों में श्रद्धालु और भक्त पूरी आस्था और श्रद्धा से मां के नौ रूपों की आराधना करते हैं। देशभर में होने वाली शक्ति उपासना में दुर्गापूजा का एक अहम स्थान है। हर क्षेत्र में विशेषकर बंगाल में व्यापक रूप से मनाये जाने वाले इस पर्व पर जैसे आस्था का सागर ही उमड़ आता है। इसीलिए प्रतिवर्ष पूजा के समय हर ओर आस्था का एक वैभवशाली रूप देखने को मिलता है। इसके साथ ही दुर्गापूजा हर किसी के लिए अनूठे उल्लास, उत्साह और उमंगों का पर्व है। भारत ही नही दुर्गापूजा की धूम आज विदेशों में भी देखने को मिलती है। खास तौर पर उन देशों में जहां भारतीय बंगाली समाज के लोग जा बसे हैं। उनके साथ ही अन्य भारतीय भी मिलकर दुर्गापूजा मनाते हैं। हालांकि वहां उतनी भव्यता से पूजा नहीं होती परंतु फिर भी अपनी संस्कृति के प्रति लगाव को इस पूजा द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। इंग्लैंड, अमेरिका के अतिरिक्त यूरोप के कई देशों में बसे भारतीय बंगाली लघु रूप में ही सही दुर्गापूजा अवश्य मनाते हैं। इन अवसरों पर वो बड़े गर्व से उस देश के लोगों को भी शामिल करते हैं। इस तरह भारत देश की रंगबिरंगी संस्कृति की झलक उनके सामने रखी जाती है।
महालया अर्थात मां दुर्गा का आगमन भोर:
दुर्गापूजा का पावन पर्व शरद ऋतु में आने वाले आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या से ही आरंभ होता है। उस दिन सुबह महालया की परंपरा है। महालया अर्थात मां दुर्गा की आगमन भोर। बांग्ला व संस्कृत भाषा में देवी की आगमनी के गीत गाए जाते हैं। रेडियो तथा टीवी पर दुर्गा की आराधना, दुर्गा सप्तशती का गान और दुर्गापूजा से जुड़ी कथाओं को संगीतमय लय में प्रसारित किया जाता है। दुर्गा स्तुति की यह मधुरिम अनुगूंज बंगभूमि के हर व्यक्ति के अंतर्मन में एक स्पंदन सा जगा देती है। इसके साथ उनमें पूजा का उत्साह आरंभ हो जाता है।
बंगाल को माना जाता है माँ दुर्गा का मायका:
बंगाल को प्राचीन समय से ही दुर्गा का मायका माना जाता है। मान्यता है कि दुर्गा के मायके आने का दिन ही पूजा समारोह का दिन है। हर वर्ष दुर्गा कैलाश पर्वत पर स्थित शिवधाम से अपनी संतानों सहित अपने मायके आती हैं। अमीर हो या गरीब सभी इस अवसर पर खुशियां मनाते हैं, नये वस्त्र खरीदते हैं, मित्र व संबंधियों को उपहार देते हैं।
देवी दुर्गा के उदय की कथा:
दुर्गा माँ अनेक शक्तियों के संचय की प्रतीक हैं। शक्ति की देवी दुर्गा के उदय की कथा हमें यही बताती है कि सभी प्रकार की शक्तियां एकरूप होकर किसी भी विनाशकारी ताकत को मिटा सकती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महिषासुर नामक राक्षस ने स्वर्ग और धरती पर अपना आतंक फैला रखा था। उस आतंक को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एक-एक कर उससे युद्ध किया। किंतु भैसे का रूप धारण किए महिषासुर ने सबको हरा दिया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसे कोई पुरुष नहीं मार सकता। पूरी तरह से हताश देवतागण ब्रह्मा, विष्णु शिव की शरण में पहुंचे। तब शिव ने अपनी क्रोधग्नि से एक दैवीय शक्ति को प्रकट किया जो स्त्री थी। इस शक्ति को सभी देवताओं ने अपने अस्त्र प्रदान किए जिससे वह महाशक्ति बन गई। सिंह पर सवार देवी ने महिषासुर को युद्ध के लिए ललकारा। फिर क्रोध भरी गर्जना के समय देवी ने दस भुजाओं में धारण अस्त्रों से उस दानव पर प्रहार किए। युद्ध के उपरांत महिषासुर का अंत हुआ। इस तरह पाप पर पुण्य की विजय हुई।
कब होती है प्रतिमाओं की स्थापना:
षष्ठी के दिन पुरोहित पहले घट यानी घड़े को पंडाल में रखते हैं। केले के वृक्ष को लाल किनारे वाली साड़ी पहनाई जाती है। तब पंडालों में दुर्गा की प्रतिमाएं स्थापित कर दी जाती है। विस्तृत पंडाल में सामने देवी की प्रतिमा स्थापित होती है। सिंहवाहिनी दस भुजाधारी माँ दुर्गा भाले से महिषासुर का मर्दन कर रही होती हैं। इस प्रतिमा के एक ओर उनके पुत्र गणेश एवं कार्तिक की मूर्तियां और दूसरी ओर लक्ष्मी तथा वीणाधारी सरस्वती विराजमान होती हैं। ये मूर्तियां देखने मे इतनी सजीव होती हैं कि मूर्तिकारों की कला की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता।
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