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शिक्षा के क्षेत्र में भारत की गौरवशाली परंपरा को बहाल करने की जरूरत- उपराष्ट्रपति

सारस न्यूज, वेब डेस्क।

उपराष्ट्रपति ने हमारी सदियों पुरानी शिक्षा प्रणालियों पर फिर से गौर करने और उन्हें वर्तमान समय के लिए प्रासंगिक बनाने का आह्वान किया। लंबे समय तक विदेशी शासन की वजह से भारत की सदियों पुरानी प्रसिद्ध शिक्षा प्रणाली बुरी तरह प्रभावित हुई। उन्होंने प्रगति के लिए शांति के महत्व को पहली जरूरत के रूप में रेखांकित किया। भारत शांति की भूमि रही है, हमारे सनातन आदर्श ‘सबका कल्याण’ करना सिखाते हैं। उन्होंने हरिद्वार में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एण्ड रिकंसिलिएशन का उद्घाटन किया। उपराष्ट्रपति ने कहा कि दक्षिण एशिया का इतिहास और सभ्यतागत मूल्य एकसमान हैं।

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडु ने आज प्राचीन शिक्षा प्रणालियों और पारंपरिक ज्ञान पर फिर से चर्चा कर उन्हें वर्तमान समय के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए शिक्षा क्षेत्र में भारत की उस गौरवशाली परंपरा को बहाल करने का आह्वान किया।

आज हरिद्वार में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एण्ड रिकंसिलिएशन (एसएआईपीआर) का उद्घाटन करने के बाद सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत की प्रसिद्ध और सदियों पुरानी शिक्षा प्रणाली लंबे समय तक विदेशी शासन की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुई है।

उन्होंने कहा कि लंबे समय तक औपनिवेशिक शासन ने महिलाओं सहित एक बड़े वर्ग को शिक्षा से वंचित रखा। औपनिवेशिक शासन में केवल एक छोटे अभिजात वर्ग को ही औपचारिक शिक्षा सुलभ थी। उन्होंने कहा, “सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना आवश्यक है, तभी हमारी शिक्षा समावेशी और लोकतांत्रिक हो सकती है।”

उन्होंने हमारी शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण करने के राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रयास पर भी प्रसन्नता व्यक्त की और उस मानसिकता के लिए कड़ी अस्वीकृति व्यक्त की जो हर भारतीय चीज को कमतर आंकती है।​ अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने इच्छा जताई कि परिवार के बुजुर्ग छोटे बच्चों के साथ अधिक समय बिताएं ताकि वे हमारे समृद्ध सांस्कृतिक मूल्यों और परंपराओं को बेहतर ढंग से आत्मसात कर सकें। उन्होंने युवाओं को प्रकृति के साथ समय बिताने की भी सलाह दी और प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक बताया।

हमारे जीवन में मातृभाषा के महत्व पर जोर देते हुए उपराष्ट्रपति ने युवाओं को अपनी मातृभाषा का अभ्यास करने, उसका विस्तार और प्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा, “मैं वो दिन देखना चाहता हूं जब हर भारतीय अपने साथी देशवासियों से अपनी मातृभाषा में बात करें, प्रशासन का काम मातृभाषा में चले और सभी सरकारी आदेश लोगों की अपनी भाषा में जारी किए जाएं।” उन्होंने अदालती कार्यवाही में भी स्थानीय भाषाओं के इस्तेमाल का आह्वान किया।

संघर्षग्रस्त दुनिया में सामाजिक और अन्य तनावों के बढ़ने पर उन्होंने कहा कि मानवता की प्रगति के लिए शांति पहली जरूरत है। उन्होंने कहा, “शांति का व्यापक प्रभाव पड़ता है – यह सामाजिक सद्भाव को बढ़ाता है और प्रगति तथा समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है।” उन्होंने कहा कि ‘शांति का लाभांश’ प्रत्येक हितधारक को लाभान्वित करता है और समाज में धन और खुशी लाता है। उन्होंने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘लोक: समस्तः सुखिनो भवन्तु’ के हमारे सदियों पुराने सभ्यतागत मूल्यों का उल्लेख करते हुए कहा कि शांति और मानवता के कल्याण के लिए भारत की प्रतिबद्धता भौगोलिक सीमाओं से परे है। उन्होंने कहा कि, “भारत को शांति की भूमि के रूप में जाना जाता है। हमने हमेशा शांति बनाए रखने और समाज के सभी वर्गों के सौहार्दपूर्ण जीवन को सुनिश्चित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है।”

दक्षिण एशियाई देशों के साझा इतिहास और सभ्यता को देखते हुए उन्होंने इस क्षेत्र में भाषाई, जातीय और सांस्कृतिक विविधताओं का सम्मान करने का भी आह्वान किया, जो सहिष्णुता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के मूल मूल्यों को प्रदर्शित करते हैं। उन्होंने कहा, “दुनिया की ‘आध्यात्मिक राजधानी’ के रूप में, भारत शांति बनाए रखने और सद्भाव सुनिश्चित करने में अपनी भूमिका निभाता रहेगा।”

उपराष्ट्रपति ने साउथ एशिया इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एण्ड रिकंसिलिएशन (एसएआईपीआर) की स्थापना में शामिल सभी लोगों को बधाई देते हुए आशा व्यक्त की कि यह संस्थान अकादमिक विचार-विमर्श के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन जाएगा और शांति एवं समन्वय के मूल्यों को फैलाने में आगे बढ़ने की एक प्रेरणा (स्प्रिंगबोर्ड) के रूप में कार्य करेगा। उल्लेखनीय है कि गायत्री तीर्थ के स्वर्ण जयंती वर्ष में हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय में एसएआईपीआर की स्थापना की गई है।

इस अवसर पर उन्होंने भगवान बुद्ध और सम्राट अशोक को याद किया और कहा कि उन्होंने ‘युद्ध घोष’ (युद्ध) पर धम्म घोष को प्राथमिकता दी और भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित पंचशील हमारी विदेश नीति का आधार है। उन्होंने योग और ध्यान को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाने के लिए विभिन्न संस्थानों के सहयोग से देव संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा किए जा रहे प्रयासों की भी सराहना की। उन्होंने योग को मानवता के लिए भारत का अनूठा उपहार बताया।

उपराष्ट्रपति नायडु ने इस संस्थान का उद्घाटन करने के बाद एसएआईपीआर और एशिया के पहले बाल्टिक संस्कृति एवं अध्ययन केंद्र का दौरा किया। उन्होंने प्रज्ञेश महाकाल मंदिर में भी दर्शन किए और विश्वविद्यालय परिसर में रुद्राक्ष का पौधा लगाया। विश्वविद्यालय की यात्रा के दौरान उन्हें संस्थान में कागज निर्माण इकाई, कृषि और गाय आधारित उत्पाद केंद्र और हथकरघा प्रशिक्षण केंद्र जैसी विभिन्न सुविधाएं भी दिखाई गईं। उन्होंने डीएसवीवी परिसर में ‘वॉल ऑफ हीरोज़’ पर शहीदों को श्रद्धांजलि भी दी और विश्वविद्यालय की नई वेबसाइट सहित विश्वविद्यालय के विभिन्न प्रकाशनों का शुभारंभ किया।

इस कार्यक्रम में उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह, पीवीएसएम, यूवाईएसएम, एवीएसएम, वीएसएम (सेवानिवृत्त), देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ प्रणव पंड्या, कुलपति शरदपर्धी, प्रति कुलपति डॉ. चिन्मय पंड्या, कुलसचिव बलदाऊ देवांगन, संकाय सदस्य, छात्र और अन्य गणमान्य व्यक्ति शामिल हुए।

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